ش | ی | د | س | چ | پ | ج |
1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 |
8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 |
15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 |
22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 |
29 | 30 |
و تو
آن شعر محالی که هنوز
با دو صد دلهره در حسرت آغاز توام
چشم بگشای و مرا باز صدا کن
" ای عشق"
که من از لهجه ی چشمان تو
شاعر بشوم
و تو را سطر به سطر
و تو را بیت به بیت
و تو را عشق به عشق ...
شاید این بار تو را پیش تو
با مرگ خود آغاز کنم ...
حمید مصدق